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Grumpy helps a reader choose the best hydrangea for their hometown. Plus, Grumpy’s gripe of the week. You can find us online at southernliving.com/askgrumpy Ask Grumpy Credits: Steve Bender aka The Grumpy Gardener - Host Nellah McGough - Co-Host Krissy Tiglias - GM, Southern Living Lottie Leymarie - Executive Producer Michael Onufrak - Audio Engineer/Producer Isaac Nunn - Recording Tech Learn more about your ad choices. Visit podcastchoices.com/adchoices…
Lakkadhare Ki Peeth | Anuj Lugun
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लकड़हारे की पीठ | अनुज लुगुन
जलती हुई लकड़ियों का
गट्ठर है मेरी पीठ पर
और तुम
मुझे बाँहों में भरना चाहती हो
मैं कहता हूँ—
तुम भी झुलस जाओगी
मेरी देह के साथ।
777 episodes
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लकड़हारे की पीठ | अनुज लुगुन
जलती हुई लकड़ियों का
गट्ठर है मेरी पीठ पर
और तुम
मुझे बाँहों में भरना चाहती हो
मैं कहता हूँ—
तुम भी झुलस जाओगी
मेरी देह के साथ।
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×धार | अरुण कमल कौन बचा है जिसके आगे इन हाथों को नहीं पसारा यह अनाज जो बदल रक्त में टहल रहा है तन के कोने-कोने यह क़मीज़ जो ढाल बनी है बारिश सर्दी लू में सब उधार का, माँगा-चाहा नमक-तेल, हींग-हल्दी तक सब क़र्ज़े का यह शरीर भी उनका बंधक अपना क्या है इस जीवन में सब तो लिया उधार सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार…
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Pratidin Ek Kavita

उस प्लम्बर का नाम क्या है | राजेश जोशी मैं दुनिया के कई तानाशाहों की जीवनियाँ पढ़ चुका हूँ कई खूँखार हत्यारों के बारे में भी जानता हूँ बहुत कुछ घोटालों और यौन प्रकरणों में चर्चित हुए कई उच्च अधिकारियों के बारे में तो बता सकता हूँ ढेर सारी अंतरंग बातें और निहायत ही नाकारा क़िस्म के राजनीतिज्ञों के बारे में घंटे भर तक बोल सकता हूँ धारा प्रवाह लेकिन घंटे भर से कोशिश कर रहा हूँ पर याद नहीं आ रहा है इस वक़्त उस प्लम्बर का नाम जो कई बार आ चुका है हमारी पाइप लाइन में अक्सर हो जाने वाली गड़बड़ी को ठीक करने वो कहाँ रहता है, कहाँ है उसके मिलने का ठीहा कुछ भी याद नहीं उसके परिवार के बारे में तो ख़ैेर.. हैरत है ! मैं बुरे लोगों के बारे में कितना कुछ जानता हूँ और उनसे भी ज़्यादा बुरों के बारे में, तो कुछ और ज़्यादा जबकि पाइप लाइन में आई किसी गड़बड़ी को किसी तानाशाह ने कभी ठीक किया हो इसका ज़िक्र उसकी जीवनी में नहीं मिलता ऐसे वक्त में हमेशा स्त्रियाँ ही मदद कर सकती हैं यह थोड़ा अजीब ज़रूर लगेगा लेकिन यही सच है कि स्त्रियाँ ही उन लोगों के बारे में सबसे ज़्यादा जानती हैं जो आड़े वक़्त में काम आते हैं जो जीवन की छोटी छोटी गड़बड़ियों को दुरुस्त करने का हुनर जानते हैं पत्नी जानती थी कि चार दिन पहले जमादारिन के यहाँ बच्चा हुआ है वो उसके बच्चे के लिए हमारी बेटी के छुटपन के कपड़े निकाल रही थी उस वक़्त जब थक हार कर मैंने उसे आवाज़ लगाई सुनो...उस प्लम्बर का नाम क्या है ?…
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Pratidin Ek Kavita

1 Rang Is Mausam Mein Bharna Chahiye | Anjum Rehbar 1:36
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रंग इस मौसम में भरना चाहिए | अंजुम रहबर रंग इस मौसम में भरना चाहिए सोचती हूँ प्यार करना चाहिए ज़िंदगी को ज़िंदगी के वास्ते रोज़ जीना रोज़ मरना चाहिए दोस्ती से तज्रबा ये हो गया दुश्मनों से प्यार करना चाहिए प्यार का इक़रार दिल में हो मगर कोई पूछे तो मुकरना चाहिए
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Pratidin Ek Kavita

कवि का घर | रामदरश मिश्र गेन्दे के बड़े-बड़े जीवन्त फूल बेरहमी से होड़ लिए गए और बाज़ार में आकर बिकने लगे बाज़ार से ख़रीदे जाकर वे पत्थर के चरणों पर चढ़ा दिए गए फिर फेंक दिए गए कूड़े की तरह मैं दर्द से भर आया और उनकी पंखुड़ियाँ रोप दीं अपनी आँगन-वाटिका की मिट्टी में अब वे लाल-लाल, पीले-पीले, बड़े-बड़े फूल बनकर दहक रहे हैं मैं उनके बीच बैठकर उनसे सम्वाद करता हूँ वे अपनी सुगन्ध और रंगों की भाषा में मुझे वसन्त का गीत सुनाते हैं और मैं उनसे कहता हूँ - जियो मित्रो ! पूरा जीवन जियो उल्लास के साथ अब न यहाँ बाज़ार आएगा और न पत्थर के देवता पर तुम्हें चढ़ाने के लिए धर्म यह कवि का घर है !…
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Pratidin Ek Kavita

तुमने मुझे | शमशेर बहादुर सिंह तुमने मुझे और गूँगा बना दिया एक ही सुनहरी आभा-सी सब चीज़ों पर छा गई मै और भी अकेला हो गया तुम्हारे साथ गहरे उतरने के बाद मैं एक ग़ार से निकला अकेला, खोया हुआ और गूँगा अपनी भाषा तो भूल ही गया जैसे चारों तरफ़ की भाषा ऐसी हो गई जैसे पेड़-पौधों की होती है नदियों में लहरों की होती है हज़रत आदम के यौवन का बचपना हज़रत हौवा की युवा मासूमियत कैसी भी! कैसी भी! ऐसा लगता है जैसे तुम चारों तरफ़ से मुझसे लिपटी हुई हो मैं तुम्हारे व्यक्तित्व के मुख में आनंद का स्थायी ग्रास... हूँ मूक।…
आदत | गुलज़ार साँस लेना भी कैसी आदत है जिए जाना भी क्या रिवायत है कोई आहट नहीं बदन में कहीं कोई साया नहीं है आँखों में पाँव बेहिस हैं चलते जाते हैं इक सफ़र है जो बहता रहता है कितने बरसों से कितनी सदियों से जिए जाते हैं जिए जाते हैं आदतें भी अजीब होती हैं
औरतें | शुभा औरतें मिट्टी के खिलौने बनाती हैं मिट्टी के चूल्हे और झाँपी बनाती हैं औरतें मिट्टी से घर लीपती हैं मिट्टी के रंग के कपड़े पहनती हैं और मिट्टी की तरह गहन होती हैं औरतें इच्छाएँ पैदा करती हैं और ज़मीन में गाड़ देती हैं औरतों की इच्छाएँ बहुत दिनों में फलती हैं
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Pratidin Ek Kavita

स्वप्न में पिता | ग़ुलाम मोहम्मद शेख़ बापू, कल तुम फिर से दिखे घर से हज़ारों योजन दूर यहाँ बाल्टिक के किनारे मैं लेटा हूँ यहीं, खाट के पास आकर खड़े आप इस अंजान भूमि पर भाइयों में जब सुलह करवाई तब पहना था वही थिगलीदार, मुसा हुआ कोट, दादा गए तब भी शायद आप इसी तरह खड़े होंगे अकेले दादा का झुर्रीदार हाथ पकड़। आप काठियावाड़ छोड़कर कब से यहाँ क्रीमिया के शरणार्थियों के बीच आ बसे? भोगावो छोड़, भादर लाँघ रोमन क़िले की कगार चढ़ डाकिए का थैला कंधे पर लटकाए आप यहाँ तक चले आए— पीछे तो देखो दौड़ आया है क़ब्रिस्तान! (हर क़ब्रिस्तान में मुझे आपकी ही क़ब्र क्यो दिखाई पड़ती है?) और ये पीछे-पीछे दौड़े आ रहे हैं भाई (क्या झगड़ा अभी निपटा नहीं?) पीछे लकड़ी के सहारे खड़े क्षितिज के चरागाह में मोतियाबिंद के बीच मेरी खाट ढूँढ़ती माँ। माँ, मुझे भी नहीं दिखता अब तक हाथ में था वह बचपन यहीं कहीं खाट के नीचे टूटकर बिखर गया है।…
उस दिन | रूपम मिश्र उस दिन कितने लोगों से मिली कितनी बातें , कितनी बहसें कीं कितना कहा ,कितना सुना सब ज़रूरी भी लगा था पर याद आते रहे थे बस वो पल जितनी देर के लिए तुमसे मिली विदा की बेला में हथेली पे धरे गये ओठ देह में लहर की तरह उठते रहे कदम बस तुम्हारी तरफ उठना चाहते थे और मैं उन्हें धकेलती उस दिन जाने कहाँ -कहाँ भटकती रही वे सारी जगहें मेरी नहीं थीं मेरी जगह मुझसे छूट गयी थी तो बचे हुए रेह से जीवन में क्या रंग भरती हवा में जैसे राख ही राख उड़ रही थी जिसकी गर्द से मेरी साँसे भरती जा रही थीं वहाँ वे भी थे जिनसे मैं अपना दुःख कह सकती थी लेकिन संकोच हुआ साथी वहाँ अपना दुख कहते जहाँ जीवन का चयन ही दुःख था और वे हँसते-गाते उन्हें गले लगाते चले जा रहे थे जहाँ सुख के कितने दरवाज़े अपने ही हाथों से बंद किये गए थे जहाँ इस साल जानदारी में कितने उत्सव, ब्याह पड़ेंगे का हिसाब नहीं कितने अन्याय हुए कितने बेघर हुए और कितने निर्दोष जेल गये के दंश को आत्मा में सहेजा जा रहा था फिर भी वियोग की मारी मेरी आत्मा कुछ न कुछ उनसे कह ही लेती पर वे मेरे अपने बंजर नहीं थे कि मैं दुःख के बीज फेंकती वहाँ और कोई डाभ न उपजती पर कहाँ उगाते वो मेरे इस गुलाबी दुःख को जहाँ की धरती पर शहतूती सपने बोये जाते हैं और फ़सल काटने का इंतज़ार वहाँ नहीं होता बस पीढ़ियों के हवाले दुःखों की सूची करके अपनी राह चलते जाना होता है ।…
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Pratidin Ek Kavita

मनुष्य - विमल चंद्र पाण्डेय मुझे किसी की मृत्यु की कामना से बचना है चाहे वो कोई भी हो चाहे मैं कितने भी क्रोध में होऊँ और समय कितना भी बुरा हो सामने वाला मेरा कॉलर पकड़ कर गालियाँ देता हुआ क्यों न कर रहा हो मेरी मृत्यु का एलान मुझे उसकी मृत्यु की कामना से बचना है यह समय मौतों के लिए मुफ़ीद है मनुष्यों की अकाल मौत का कोलाज़ रचता हुआ फिर भी मैं मरते हुए भी अपनी मनुष्यता बचाए रखना चाहूँगा ये मेरा जवाब होगा कि मैं बचाए जाने लायक़ था कि हम बचाए जाने लायक़ थे!…
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Pratidin Ek Kavita

अपने प्रेम के उद्वेग में | अज्ञेय अपने प्रेम के उद्वेग में मैं जो कुछ भी तुमसे कहता हूँ, वह सब पहले कहा जा चुका है। तुम्हारे प्रति मैं जो कुछ भी प्रणय-व्यवहार करता हूँ, वह सब भी पहले हो चुका है। तुम्हारे और मेरे बीच में जो कुछ भी घटित होता है उससे एक तीक्ष्ण वेदना-भरी अनुभूति मात्र होती है—कि यह सब पुराना है, बीत चुका है, कि यह अभिनय तुम्हारे ही जीवन में मुझसे अन्य किसी पात्र के साथ हो चुका है! यह प्रेम एकाएक कैसा खोखला और निरर्थक हो जाता है!…
तुम | अदनान कफ़ील दरवेश जब जुगनुओं से भर जाती थी दुआरे रखी खाट और अम्मा की सबसे लंबी कहानी भी ख़त्म हो जाती थी उस वक़्त मैं आकाश की तरफ़ देखता और मुझे वह ठीक जुगनुओं से भरी खाट लगता कितना सुंदर था बचपन जो झाड़ियों में चू कर खो गया मैं धीरे-धीरे बड़ा हुआ और जवान भी और तुम मुझे ऐसे मिले जैसे बचपन की खोई गेंद मैंने तुम्हें ध्यान से देखा मुझे अम्मा की याद आई और लंबी कहानियों की और जुगनुओं से भरी खाट की और मेरे पिछले सात जन्मों की मैंने तुम्हें ध्यान से देखा और संसार आईने-सा झिलमिलाया किया उस दिन मुझे महसूस हुआ तुमसे सुंदर दरअसल इस धरती पर कुछ भी नहीं था।…
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Pratidin Ek Kavita

प्रेम के प्रस्थान | अनुपम सिंह सुनो, एक दिन बन्द कमरे से निकलकर हम दोनों पहाड़ों की ओर चलेंगे या फिर नदियों की ओर नदी के किनारे, जहाँ सरपतों के सफ़ेद फूल खिले हैं। या पहाड़ पर जहाँ सफ़ेद बर्फ़ उज्ज्वल हँसी-सी जमी है दरारों में और शिखरों पर काढेंगे एक दुसरे की पीठ पर रात का गाढ़ा फूल इस बार मैं नहीं तुम मेरे बाजुओं पर रखना अपना सिर मैं तुम्हें दूँगी उत्तेजित करने वाला चुम्बन धीरे-धीरे पहाड़ की बर्फ़ पिघलाकर जब लौट रहे होंगे हम तब रेगिस्तानों तक पहुँच चुका होगा पानी सुनो, इस बार की अमावस्या में हम एक दूसरे की आँखों में देर तक देखेंगे अपना चेहरा और इस कमरे से निकलकर खेतों की ओर चलेंगे हमें कोई नहीं देखेगा अंधेरी रात में हाथ पकड़कर दूर तक चलते हुए मैं धान के फूलों के बीच तुम्हें चूमँगी झिर-झिर बरसते पानी के साथ फैल जाएगा हमारा तत्त्व खेतों में मुझे मेरे भीतर एक आदिम स्त्री की गंध आती है। और मैं तुम्हें एक आदिम पुरुष की तरह पाना चाहती हूँ फिर अगली के अगली बार हम पठारों की तरफ चलेंगे छोटी-छोटी गठीली वनस्पतियों के बीच गाएँगे कोई पुराना गीत जिसे मेरी और तुम्हारी दादी गाती थीं खोजेंगे नष्ट होते बीजों को चींटों के बिलों में मैं भी गोड़ना चाहती हूँ वहाँ की सख्त मिट्टी मैं भी चाहती हूँ लगाना पठारी धरती पर एक पेड़ सुनो, तुम इस बर लौटो तो हम अपने प्रेम के तरीक़े बदल देंगे।…
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Pratidin Ek Kavita

धूप भी तो बारिश है | शहंशाह आलम धूप भी तो बारिश है बारिश बहती है देह पर धूप उतरती है नेह पर मेरे संगीतज्ञ ने मुझे बताया धूप है तो बारिश है बारिश है तो धूप है मैंने जिससे प्रेम किया उसको बताया तुम हो तो ताप और जल दोनों है मेरे अंदर।
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1 Jo Ulajhkar Reh Gayi Hai Filon Ke Jaal Mein | Adam Gondvi 1:48
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जो उलझकर रह गई है फ़ाइलों के जाल में | अदम गोंडवी जो उलझकर रह गई है फ़ाइलों के जाल में गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गई रमसुधी की झोंपड़ी सरपंच की चौपाल में खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए हमको पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में जिसकी क़ीमत कुछ न हो इस भीड़ के माहौल में ऐसा सिक्का ढालिए मत जिस्म की टकसाल में…
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