Upadesh Saar-7 / उपदेश सार-७
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उपदेश सार के सातवें प्रवचन में पू स्वामी आत्मानन्द जी ग्रन्थ के ८वें से लेकर १०वें श्लोक पर चर्चा करते हैं। भक्ति की साधना मोठे तौर से दो भागों में विभाजित होती है। एक में भगवान् अभी भक्त से अलग होते हैं, वे हम से अलग किसी लोक में रहते हैं, तथा बाद में कुछ लोग भगवन को अपने ह्रदय में अंतर्यामी की तरह से जानते हैं। ऐसे भक्त कभी अपने को भगवान् का अंश देखते हैं और कभी तो पूर्ण एकता भी देखते हैं। इन दोनों का क्रम से महत्त्व होता है। इन दोनों का महत्त्व पूज्य स्वामीजी महाराज से समझाया। प्रारम्भ में भेद-भावना से भजन करना न केवल स्वाभाविक होता है बल्कि इसके अनेकानेक लाभ भी होते हैं। जिसमे भेद भावना होती है वे ही ईश्वर के गुण आदि ठीक से समझने की कोशिश करते हैं, अन्यथा उनका ध्यान अपने आप से हटता ही नहीं है। जब ईश्वर के ईश्वरत्व का परिचय हो जाए तभी उनसे एकता उचित और कल्याणकारी होती है। इसके अलावा पूज्य गुरूजी ने बताया की भक्ति, कर्म, ज्ञान आदि सभी योगों का पर्यवसान तब होता है जब हमारा मन अपनी सात स्वरुप आत्मा में होने लगता है। निर्मल और शुद्ध कहलाता है। ऐसे लोगो का मन स्वाभाविक रूप से शान्त और विचारशील हो जाता है।
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